बता दो मुझे, ये नए मेहबूब का बाज़ार लगता कहाँ है
जज्बातों से खरीदने की अब मेरी कोई औकात नहीं

किताबो में रखा ये गुलाब पहले जैसे लगता कहाँ है
खुशबू थी वो उड़ गई सुखी पंखुड़ियों में वो बात नहीं

समझा दो मुझे कोई ये हर रोज आखिर चलता कहाँ है
मन की पूछ लो मगर दिल की पूछना कोई बात नहीं

जैसी पहले होती थी, वैसी वो बात अब करता कहाँ है
दिल वो ही है उसका, पर वो पहले जैसा मिजाज नहीं

वो लगती बहुत खूब है, पर अब झुमका वैसे खनकता कहाँ है
टिके, चूड़ियां, गालों की लाली में वो सादगी वाली बात नहीं

जो बाते तुझसे हुई वो बाते किसी और से ये दिल करता कहाँ है
तुम नहीं हो इस सफ़र में तो सुलगती हुई बची कोई आग नहीं

ये दोपहर, शाम, दिन, रात, पहले जैसे बात अब करते कहाँ है
शायद तू नहीं है तो ये सब भी बताते अपने कोई राज नहीं

रात होती तो है, पर ये चांद उस वक़्त जैसा लगता कहाँ है
आंखें भरी हुई है नींद से, शायद अब पहले जैसी वो रात नहीं ।

 

रचना : मनीष पांचाल