क्यों काफी नहीं था ये कहना की
आबरू उसकी लुटी है,
जो जिस्म पे लगी खरोंचो की भी गिनती
करने लगते हो तुम,
शौक था अगर इतना ही हिसाब करने का तो
ऐ लोगों उसकी रूह पे लगे जख्मों की
गहराई नाप लेते तुम,
है शर्मसार कुदरत भी तुम इंसानों पे आज
मासूम की लुटी इज्जत का भी तमाशा बनाते हो तुम।
रचना: अनुपमा सिन्हा