इश्क…

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अल्फाजों की चाहत किसे है,
हमें तो इश्क तेरी खामोशियों से है।

हाल तो पूछ लूँ मैं तेरा पर डरती हूँ आवाज से तेरी,
जब जब सुनी है, कमबख्त मोहब्बत ही हुई है।

खोया हूँ खुद में मैं कुछ इस तरह,
खुद को खोकर भी ना पा सकोगे मुझे उस तरह।

सीखना चाहती हूँ परिंदों से,
आसमां तक उड़कर भी जमीन से मोहब्बत कायम रखना।

बहुत तड़पाते हैं तेरे साथ गुजारे हुए वो लम्हें,
कभी खुद रो पड़ती हूं तो कभी तेरी यादें रुला देती हैं।

हाथ पकड़ कर रोक लेते तुझे
अगर तुझ पर हमारा जोर होता,
ना रोते हम भी तेरे लिए
अगर हमारी जिंदगी में तेरे सिवा कोई और होता।

आदत नहीं, कुछ लाइलाज बीमारी है
चाय से मेरी कुछ इस कदर यारी है।

वो कहते हैं कि हर नशा उन पर बेअसर है ,
“कभी पल भर के लिए मेरी आंखों में डूब कर देखना,”
मैंने भी मुस्कुरा कर कह दिया।

भले ही साथ तेरा पल भर का था,
उन पलों में भी हमने सारी जिंदगी जी ली।

सामने दरिया है फिर भी नहीं बुझती,
ये तिश्नगी तेरे दीदार की जो है।

यूं ही तू सांसो तक नहीं समाया
तू वो शख्स है, जिसे शख्स नहीं मोहब्बत समझा है हमने।

मुद्दतों बाद हंसी थी वो
हाल ही उसने कुछ इस तरह पूछा था।

इश्क हो, ख्वाब हो,
या कोई किताब हो तुम,
मेरे दिल में बसे सवाल हो तुम,
या उन सवालों का जवाब हो तुम।

तोड़ती हैं हमें दुनिया – जहान की रश्में,
तुम निभाने की बात करते हो।

यूं ही हर किसी पर मर मिटने की आदत हमारी भी नहीं,
पर उसे देखने के बाद दिल ने सोचने की भी मोहलत न दी।

रचना: दीक्षा शर्मा 

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