बेटी…

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बना हूंँ मैं पिता जब से मेरी पहचान बेटी है,
दुआओं में जिसे पाया है वो वरदान बेटी है l
जिसके रूप में बसती है परियों की सी सुंदरता,
वो डैडी बोल कर देती है जो सम्मान बेटी है l
जिसकी मुस्कुराहट से हमारी सांस चलती है,
नहीं कोई भी उस जैसा वो मेरी जान बेटी है l
कि जिसके पायलों की छन से पूरा घर महकता है,
वह हंसती खिल-खिलाती सी सुबह और शाम बेटी हैl
जिसके सपनों के खातिर जो मैं दिन रात जगता हूं,
मेरी उम्मीद की कश्ती का एक  पतवार बेटी है l
वो जिसके  पांव के बस धूल से है जिंदगी रोशन,
ढलती उम्र में बाबुल के दिल की जान बेटी है l
रचना: लीला धर विश्वकर्मा 

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