मेरी सरलता तो
स्वाभाविक है जनाब,
मगर उनकी ये जटिलता,
ये अच्छा नही लगता।
पढ़ लिख के संस्कार,
मिल न पाए तो न सही,
मगर पढ़ कर भी ,
संसकारो से वंचित,
ये अच्छा नही लगता।
मेरी तो शुरुआत है,
पारी की,
मगर उनका अंतिम में भी,
यह हाल,
ये अच्छा नही लगता।
दिखने में आदमी जैसा मगर,
उनका अंदाज- ए- जानवर,
ये अच्छा नही लगता।
दोष उनका नही,
शायद खूबी उसकी है,
एक ही माली है बगिया का,
फिर भी अनेको फूल,
कोई खुसबू से भरा,
कोई खुसबू से हीन,
किसी को बुरा नही लगता,
किसी को अच्छा नही लगता।
मेरी सरलता…
रचना – सुशील कुमार पांडेय