अपनी बेटी…

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न हँसती है न रोती है, वो बस चुपचाप लेटी है,
दरिंदों ने जिसे लूटा है वह भारत की बेटी है ।
सांसे लड़खड़ाती हैं, बदन भी पूरा जख्मी है,
लगा इंसाफ की अर्जी, नजर चुपचाप तकती है।
हवस के उन दरिंदों को, सजा-ए-मौत देनी है,
लहू से तरबतर उसकी ज़ुबाँ दिन-रात कहती है।
यहां इंसान की बस्ती में जो शैतान बसते हैं,
उन्हें अब मौत देनी है, ये भगवानों से अर्ज़ी है l
सभी चुप हैं ज़ुबाँ वाले, यहां सरकारें सोई हैं,
यहां इंसाफ कैसे हो कि जब आंखों पर पट्टी है ।
वो उस इंसाफ की देवी से एक फरियाद करती है,
हटा दो आंख की पट्टी, तुम्हारी अपनी बेटी है ।
जो बिन सांसों की, शैया पर यहां चुपचाप लेटी है,
नही ये और कोई है, हमारी अपनी बेटी है।

रचना- लीला धर विश्वकर्मा

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