बंद डायरी में दफ़्न फटे पन्नें …

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तू मेरी  बंद डायरी  में दफ़्न फटे पन्नों सा है,
जिसमें  जख्म मेरा पर निशा तेरा सा हैl
दर्द बेहतर समझता है तू, मेरे जज्बातों का,
नहीं दिखता आंखों में,आंसुओं का घेरा सा है।
फुर्सत में है तो बैठ, खोल उन पन्नों को जरा,
जिसमें अब भी तेरी यादों का डेरा सा है।
ये नजर आज भी तेरे नाम पर फन उठाती है,
तु दिल की बस्ती में बैठा एक सपेरा सा है।
वह फूल जो मुरझा के बैठा है डायरी में मेरी,
तेरी खुशबू सा महकता है पर अधमरा सा है।
जो कुमकुम के निशान छोड़ कर गए थे कभी,
देख लो  फिर से, रंग आज भी गहरा सा है।
रचना: लीला धर विश्वकर्मा 

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